कजरी के गीत मिथ्या हैं

अगले कातिक में मैं बारह साल की हो जाती ऐसा माँ कहती थी लेकिन जेठ में ही मेरा ब्याह करा दिया गया ब्याह शब्द से डर लगता था जब से पड़ोस की

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आषाढ़

यह आषाढ़ जो तुमने मां के साथ रोपा था हमारे खेतों में घुटनों तक उठ गया है अगले इतवार तक फूल फूलेंगे कार्तिक पकेगा हमारा हँसिया झुकने से पहले हर पौधा तुम्हारी

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घर की याद

आज पानी गिर रहा है, बहुत पानी गिर रहा है, रात भर गिरता रहा है, प्राण मन घिरता रहा है, अब सवेरा हो गया है, कब सवेरा हो गया है, ठीक से

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चाँदनी की पाँच परतें

चाँदनी की पाँच परतें हर परत अज्ञात है। एक जल में एक थल में एक नीलाकाश में एक आँखों में तुम्हारे झिलमिलाती एक मेरे बन रहे विश्वास में क्या कहूँ, कैसे कहूँ

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आपकी हँसी

निर्धन जनता का शोषण है कह कर आप हँसे लोकतंत्र का अंतिम क्षण है कह कर आप हँसे सबके सब हैं भ्रष्टाचारी कह कर आप हँसे चारों ओर बड़ी लाचारी कह कर

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समय की नदी

हम समय की नदी तैर कर आ गए अब खड़े हैं जहाँ वह जगह कौन है। तोड़ते-जोड़ते हर नियम, उपनियम उत्सवों के जिए साँस-दर-साँस हम एक पूरी सदी तैर कर आ गए

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ठाकुर का कुआँ

चूल्हा मिट्टी का मिट्टी तालाब की तालाब ठाकुर का भूख रोटी की रोटी बाजरे की बाजरा खेत का खेत ठाकुर का बैल ठाकुर का हल ठाकुर का हल की मूठ पर हथेली

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कितना अच्छा होता है

एक-दूसरे को बिना जाने पास-पास होना और उस संगीत को सुनना जो धमनियों में बजता है, उन रंगों में नहा जाना जो बहुत गहरे चढ़ते-उतरते हैं। शब्दों की खोज शुरु होते ही

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कुछ का व्यवहार बदल गया

कुछ का व्यवहार बदल गया। कुछ का नहीं बदला। जिनसे उम्मीद थी, नहीं बदलेगा उनका बदल गया। जिनसे आशंका थी, नहीं बदला। जिन्हें कोयला मानता था हीरों की तरह चमक उठे। जिन्हें

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उस समय भी

जब हमारे साथी-संगी हमसे छूट जाएँ जब हमारे हौसलों को दर्द लूट जाएँ जब हमारे आँसुओं के मेघ टूट जाएँ उस समय भी रुकना नहीं चलना चाहिए टूटे पंख से नदी की

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