धर्म संकट

शाम का समय था, हम लोग प्रदेश, देश और विश्‍व की राजनीति पर लंबी चर्चा करने के बाद उस विषय से ऊब चुके थे। चाय बड़े मौके से आई, लेकिन उस ताजगी

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वे दस मिनट

कोलकाता से चेन्नई के लिए ट्रेन में बैठा था। 24 घंटे का सफर। साथ में दो एक किताबें रख ली थी। नीचे की बर्थ पाकर संतुष्ट था। सामान लगाया और टीटी से

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लाल पान की बेग़म

‘क्यों बिरजू की माँ, नाच देखने नहीं जाएगी क्या?’ बिरजू की माँ शकरकंद उबाल कर बैठी मन-ही-मन कुढ़ रही थी अपने आँगन में। सात साल का लड़का बिरजू शकरकंद के बदले तमाचे

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मेंटल

हम सब लोग उसे पागल करार दे चुके थे। शक-शुबह की कहीं कोई गुंजाइश नहीं थी। इस किस्से से पहले वह हम लोगों की तरह ही नॉर्मल था। पिछले पन्द्रह सालों में

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लिहाफ़

जब मैं जाड़ों में लिहाफ़ ओढ़ती हूँ तो पास की दीवार पर उसकी परछाई हाथी की तरह झूमती हुई मालूम होती है। और एकदम से मेरा दिमाग बीती हुई दुनिया के पर्दों

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लेखक

प्रात:काल महाशय प्रवीण ने बीस दफ़ा उबाली हुई चाय का प्याला तैयार किया और बिना शक्कर और दूध के पी गये। यही उनका नाश्ता था। महीनों से मीठी, दूधिया चाय न मिली

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स्त्री सुबोधिनी

प्यारी बहनों, न तो मैं कोई विचारक हूँ, न प्रचारक, न लेखक, न शिक्षक। मैं तो एक बड़ी मामूली-सी नौकरीपेशा घरेलू औरत हूँ, जो अपनी उम्र के बयालीस साल पार कर चुकी

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पलाश के फूल

नए मकान के सामने पक्की चहारदीवारी खड़ी करके जो अहाता बनाया गया है, उसमें दोनो ओर पलाश के पेड़ों पर लाल-लाल फूल छा गए थे। राय साहब अहाते का फाटक खोलकर अंदर

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नौ साल छोटी पत्नी

कुशल दबे पाँव इस तरह घर में घुसा था, जैसे घर उसका अपना न हो और खाँसी आने पर वह गली में जा कर इस तरह जी भर कर खाँस आया था,

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मैं हार गई

जब कवि-सम्मेलन समाप्त हुआ तो सारा हॉल हँसी-कहकहों और तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज रहा था। शायद मैं ही एक ऐसी थी, जिसका रोम-रोम क्रोध से जल रहा था। उस सम्मेलन की

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