हम सब तो खड़े हैं मक़तल में

हम सब तो खड़े हैं मक़तल में क्या हमको ख़बर इस बात की है जिस जुल्म को हम सौग़ात कहें सौग़ात वो काली रात की है हम जिसको मसीहा कह बैठे वो

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एक थी गौरा

लंबे कद और डबलंग चेहरे वाले चाचा रामशरण के लाख विरोध के बावजूद आशू का विवाह वहीं हुआ। उन्होंने तो बहुत पहले ही ऐलान कर दिया था कि ‘लड़की बड़ी बेहया है।’

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अनुभव

1970 की गर्मियों का प्रारंभ था। गंगा के मैदान में गर्मियों के बारे में सभी जानते हैं। यहाँ पर मौसम का विशेष कुछ तात्‍पर्य नहीं है सिवाय इसके कि एक लंबे अंतराल

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अपरिचित

कोहरे की वजह से खिड़कियों के शीशे धुँधले पड़ गये थे। गाड़ी चालीस की रफ़्तार से सुनसान अँधेरे को चीरती चली जा रही थी। खिड़की से सिर सटाकर भी बाहर कुछ दिखाई

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ये बातें झूठी बातें हैं

ये बातें झूठी बातें हैं, ये लोगों ने फैलाई हैं तुम इंशा जी का नाम न लो, क्या इंशा जी सौदाई हैं? हैं लाखों रोग ज़माने में, क्यों इश्क़ है रुसवा बेचारा हैं

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हास्यरस

लगभग आधे घंटे में कार्रवाई पूरी हो गई और हम लोग रजिस्ट्रार के कमरे से बाहर निकल आए। तीन मित्र जिन्होंने गवाही दी, पत्नी, और मुझे लेकर, हम पाँच लोग हैं। बाहर

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अमृतसर आ गया

गाड़ी के डिब्बे में बहुत मुसाफिर नहीं थे। मेरे सामनेवाली सीट पर बैठे सरदार जी देर से मुझे लाम के किस्से सुनाते रहे थे। वह लाम के दिनों में बर्मा की लड़ाई

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गूंगे

‘शकुतंला क्या नहीं जानती?’ ‘कौन? शकुंतला! कुछ भी नहीं जानती।’ ‘क्यों साहब? क्या नहीं जानती? ऐसा क्या काम है जो वह नहीं कर सकती?’ ‘वह उस गूंगे को नहीं बुला सकती।’ ‘अच्छा

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