धूप की नदी

मैं कब से बैठा हूँ अंधेरे के इस पहाड़ की तलहटी में, अभी अभी गुज़रे हैं इधर से कुछ उद्दंड अश्वारोही अपनी तलवारों पर हाथ फेरते बेहद फूहड़ और भयानक हंसी के

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