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ग़ज़ल

मंज़िल पे न पहुँचे उसे रस्ता नहीं कहते

मंज़िल पे न पहुँचे उसे रस्ता नहीं कहते दो चार क़दम चलने को चलना नहीं कहते इक हम हैं कि ग़ैरों को भी कह देते हैं अपना इक तुम हो कि अपनों

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