आवाज़ दो हम एक हैं

एक है अपना जहाँ, एक है अपना वतन अपने सभी सुख एक हैं, अपने सभी ग़म एक हैं आवाज़ दो हम एक हैं … ये वक़्त खोने का नहीं, ये वक़्त सोने

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पंचरत्न

1) मेज़ की दराज में एक तिल का बोसा, तुम्हारे लिए संभाल रखा था, बीती सर्दी में दराज फूलों से भर गई थी, और मेरा चेहरा मुंहासों से! ### 2) हम दोनों के

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अजीब आदमी था वो

अजीब आदमी था वो मोहब्बतों का गीत था बग़ावतों का राग था कभी वो सिर्फ़ फूल था कभी वो सिर्फ़ आग था अजीब आदमी था वो वो मुफ़लिसों से कहता था कि

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क्या कहती हो

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उस शाम के मुहाने पे उस शब के सिरहाने से वादियों के ख़ामोशी में पेड़ों के सरसराहट से सरकती हुई तुम्हारी मुस्कुराहट बोलों के बीच तुम्हारी मीठी सी सांस की आवाज़ जावेदां

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आदमी नामा

दुनिया में पादशह है सो है वो भी आदमी और मुफ़्लिस-ओ-गदा है सो है वो भी आदमी ज़रदार-ए-बे-नवा है सो है वो भी आदमी नेमत जो खा रहा है सो है वो

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ख़ून फिर ख़ून है

ज़ुल्म फिर ज़ुल्म है बढ़ता है तो मिट जाता है ख़ून फिर ख़ून है टपकेगा तो जम जाएगा ख़ाक-ए-सहरा पे जमे या कफ़-ए-क़ातिल पे जमे फ़र्क़-ए-इंसाफ़ पे या पा-ए-सलासिल पे जमे तेग़-ए-बे-दाद

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जम्हूरियत

दस करोड़ इंसानो! ज़िंदगी से बेगानो! सिर्फ़ चंद लोगों ने हक़ तुम्हारा छीना है ख़ाक ऐसे जीने पर ये भी कोई जीना है बे-शुऊर भी तुम को बे-शुऊर कहते हैं सोचता हूँ

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पशेमानी

मैं ये सोच कर उस के दर से उठा था कि वो रोक लेगी मना लेगी मुझ को हवाओं में लहराता आता था दामन कि दामन पकड़ कर बिठा लेगी मुझ को

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शबाना

ये आए दिन के हंगामे ये जब देखो सफ़र करना यहाँ जाना वहाँ जाना इसे मिलना उसे मिलना हमारे सारे लम्हे ऐसे लगते हैं कि जैसे ट्रेन के चलने से पहले रेलवे-स्टेशन

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कभी कभी

कभी कभी मिरे दिल में ख़याल आता है कि ज़िंदगी तिरी ज़ुल्फ़ों की नर्म छाँव में गुज़रने पाती तो शादाब हो भी सकती थी ये तीरगी जो मिरी ज़ीस्त का मुक़द्दर है

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