इस बस्ती के इक कूचे में

इस बस्ती के इक कूचे में इक ‘इंशा’ नाम का दीवाना इक नार पे जान को हार गया मशहूर है उस का अफ़साना उस नार में ऐसा रूप न था जिस रूप

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एक सहेली की नसीहत

तुम अकेली नहीं हो सहेली जिसे अपने वीरान घर को सजाना था और एक शायर के लफ़्ज़ों को सच मानकर उसकी पूजा में दिन काटने थे तुमसे पहले भी ऐसा ही इक

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दोस्ती का हाथ

गुज़र गए कई मौसम कई रुतें बदलीं उदास तुम भी हो यारो उदास हम भी हैं फ़क़त तुम्हीं को नहीं रंज-ए-चाक-दामानी कि सच कहें तो दरीदा-लिबास हम भी हैं तुम्हारे बाम की

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